- उत्तराखंड हाईकोर्ट की विशेष पीठ के समक्ष जमीयत उलमा-ए-हिंद की ओर से वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल की दलील
- यह संविधान की सर्वाेच्चता को खत्म करने का जानबूझकर किया गया प्रयास हैः मौलाना अरशद मदनी
नैनीताल। उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू करने के खिलाफ जमीयत उलमा-ए-हिंद की और से दायर की गई महत्वपूर्ण याचिका में वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड फुजैल अहमद अयूबी शुक्रवार को उत्तराखंड उच्च न्यायालय की विशेष पीठ के समक्ष पेश हुए, जिसमें मुख्य न्यायाधीश जीनरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक मेहरा शामिल हैं। कोर्ट ने पूर्व में दायर हुई याचिकाओं के साथ सम्बद्ध करते हुए सभी याचिकाओं को एक साथ 6 हफ्ते बाद सुनने का फैसला लिया है।
शुक्रवार को जमीयत उलमा-ए-हिंद की और से नैनीताल जिला अध्यक्ष मो.मुकीम निवासी हल्द्वानी, कार्यालय सचिव ताजीम अली (हरिद्वार),सदस्य शोएब अहमद (मल्लीताल नैनीताल), मोहम्मद शाह नजर, अब्दुल सत्तार व मुस्तकीम हसन देहरादून की और से दायर याचिका पर सुनवाई हुई। इसी तरह एक अन्य रिट देहरादून के नईम अहमद, बिजनौर के हिजाब अहमद, देहरादून के जावेद अख्तर व आकिब कुरैशी ने दायर की है। कोर्ट ने इन याचिकाओं की सुनवाई की तिथि 1 अप्रैल निर्धारित कर दी है।
वहीं, यूसीसी के कुछ प्रावधानों को अधिवक्ता आरुषि गुप्ता ने जनहित याचिका के जरिये चुनौती दी है। जबकि दो दिन पूर्व भीमताल निवासी सुरेश सिंह नेगी ने भी यूसीसी में लिव इन रिलेशनशिप के प्रावधानों को जनहित याचिका के जरिये चुनौती दी थी, जबकि देहरादून के अलमासुद्दीन व अन्य ने रिट याचिका दायर कर यूसीसी को चुनौती दी है। इन याचिकाओं में हाईकोर्ट ने सरकार को नोटिस जारी किया है।
शुक्रवार को सुनवाई के दौरान वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने पीठ के समक्ष दो बिंदु रखे पहला, सूची तीसरी प्रविष्टि 5 के तहत, किसी भी प्रांतीय सरकार को समान नागरिक संहिता बनाने और लागू करने का कोई अधिकार नहीं है, यहां तक कि अनुच्छेद 44 भी किसी प्रांतीय सरकार को ऐसा कानून बनाने की अनुमति नहीं देता है।
वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि जो कानून लाया गया है वह स्पष्ट रूप से नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है जो उन्हें संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 और 25 में दिए गए हैं। वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अदालत से समान नागरिक संहिता पर स्टे लगाने का अनुरोघ किया।
उत्तराखंड सरकार के अधिवक्ता ने इसका विरोध करते हुए जवाब दाखिल करने का समय मांगा, इस पर अदालत ने राज्य सरकार को अपना जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया। कपिल सिब्बल के आग्रह पर अगली सुनवाई एक अप्रैल 2025 तय हुई। वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने मुख्य न्यायाधीश से यह भी कहा कि अगली तारीख पर हम स्टे पर ही बहस करेंगे।
उन्होंने यह भी कहा कि चूंकि समान नागरिक संहिता के कुछ प्रावधानों में सजा और जुर्माने का भी प्रावधान है, इसलिए इस पर स्टे लगाना जरूरी है। इस पर मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि अगर इस दौरान ऐसा कोई मामला सामने आता है तो हम आपको तुरंत अदालत के संज्ञान में लाने की इजाजत देते हैं।
पीठ ने यह भी कहा कि अगर कोई इस कानून से व्यक्तिगत रूप से प्रभावित होता है या किसी के खिलाफ इस कानून के तहत कोई कार्रवाई होती है तो वह पीठ का दरवाजा खटखटा सकता है। गौरतलब है कि उत्तराखंड विधानसभा में समान नागरिक संहिता को मंजूरी मिलने के करीब एक साल बाद 27 जनवरी 2025 को इसे औपचारिक रूप से लागू कर दिया गया। इस तरह उत्तराखंड समान नागरिक संहिता लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन गया।
मौलाना अरशद मदनी के निर्देश पर जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने इस कानून को उत्तराखंड उच्च न्यायालय में चुनौती दी है, जिस पर आज प्रारंभिक सुनवाई हुई। आज के कानूनी घटनाक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि भारत जैसे महान लोकतांत्रिक देश में धर्मनिरपेक्ष संविधान के अस्तित्व के बावजूद जिस तरह से यह कानून लाया गया, वह पक्षपात, भेदभाव और पूर्वाग्रह का प्रकटीकरण है।
मौलाना मदनी ने कहा कि संविधान के कुछ प्रावधानों का हवाला देकर जिस तरह से जनजातियों को इस कानून से अलग रखा गया है, वह इस बात का प्रमाण है कि यह कानून मुसलमानों की सामाजिक और धार्मिक पहचान को कमजोर और नष्ट करने के उद्देश्य से बनाया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान में अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार भी दिए गए हैं, लेकिन उनका ध्यान नहीं रखा गया है।
इतना ही नहीं, संविधान में आम नागरिकों को भी मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। इसलिए यह कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन करता है। मौलाना मदनी ने आगे कहा कि आज की शुरुआती सुनवाई में हमारे वकील ने जो बिंदु अदालत के सामने रखे वो बहुत ही इत्मीनान बक्श है।
उन्होंने कहा कि कुछ न्यायप्रिय दूसरे समुदाय के लोगों ने भी इसके खिलाफ याचिकाएं दायर की हैं, जिसमें उन्होंने भी भेदभाव, पूर्वाग्रह और मौलिक अधिकारों का मुद्दा उठाया है। इसलिए हमें उम्मीद है कि 1 अप्रैल को इस पर न केवल सकारात्मक चर्चा होगी बल्कि अदालत इस पर स्टे दे देगी, क्योंकि ऐसा कानून न केवल संविधान की सर्वाेच्चता को कमजोर करता है, बल्कि संविधान द्वारा गारंटीकृत नागरिकों के मौलिक अधिकारों को भी गहराई से प्रभावित करता है।