गौरा देवी की जन्मशती पर स्मरण

गौरा देवी की जन्मशती पर स्मरण

Devendra K Budakoti
देवेंद्र कुमार बुडाकोटी

देवेंद्र कुमार बुडाकोटी

मेरा मन 1987 की उन दिनों में लौट जाता है जब मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.) से सामुदायिक स्वास्थ्य शोधकर्ता के रूप में चमोली जिले में स्वास्थ्य सेवाओं के अध्ययन के लिए क्षेत्रीय दौरे पर था। आज जब मैं यह समाचार देखता हूँ कि डाक विभाग ने चमोली ज़िले के जोशीमठ ब्लॉक के रेणी गाँव में गौरा देवी की जन्मशती के अवसर पर एक विशेष “माय स्टैम्प” और स्मारक लिफाफा जारी किया है, तो अनेक स्मृतियाँ मन में ताज़ा हो जाती हैं।

सन् 1987 में ही मेरी पहली मुलाक़ात गौरा देवी से हुई थी। यह भेंट चिपको आंदोलन के अग्रणी श्री चंडी प्रसाद भट्ट द्वारा गोपेश्वर में दशोली ग्राम स्वराज मंडल के परिसर में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान हुई। उस समय मेरा वहाँ रहना मेरे लिए सौभाग्य की बात थी। समय का बीतना तब ही महसूस होता है जब पुराने मित्र बताते हैं कि हमारे बच्चे अब कितने बड़े हो गए हैं — और आज जब मेरी बड़ी बेटी सृष्टि पर्यावरण अभियांत्रिकी में बी.टेक और एम.टेक कर चुकी है, तो वे दिन और भी गहराई से याद आते हैं।

मुझे याद है कि उसकी कक्षा 10 की पर्यावरण शिक्षा की पाठ्यपुस्तक में “चिपको आंदोलन” को पर्यावरण संरक्षण की एक सफल जनकथा के रूप में शामिल किया गया था। उस समय मैं नहीं जानता था कि उसे इस आंदोलन के बारे में और कितना बताऊँ, परंतु उस संदर्भ ने मुझे मेरी पहली रेणी गाँव यात्रा की याद दिला दी — वह यात्रा जिसमें मेरे साथ स्वयं गौरा देवी थीं, वह महिला जिन्होंने गाँव की महिलाओं को संगठित कर वृक्षों को काटने से रोकने के लिए उन्हें आलिंगन कर जंगल बचाने का साहस दिखाया था।

उस समय मैं चमोली ज़िले में स्वास्थ्य सेवा तंत्र की स्थिति पर शोध कर रहा था। इस दौरान मैंने चिपको आंदोलन और उसमें महिलाओं की भूमिका के बारे में बहुत कुछ पढ़ा था। गोपेश्वर में रहते हुए मुझे श्री चंडी प्रसाद भट्ट से सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर चर्चा करने का अवसर मिला। यही मेरा सौभाग्य था कि इन्हीं दिनों मुझे गौरा देवी से भी मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। वे गोपेश्वर किसी कार्यक्रम में भाग लेने आई थीं। उनके चेहरे की चमक, आँखों का आत्मविश्वास और व्यक्तित्व की गरिमा सभी को प्रभावित कर रही थी।

बातचीत के दौरान उन्होंने हँसते हुए कहा कि उनकी बहुत बार तस्वीरें खींची गईं, परंतु उन्हें कभी उनकी प्रतियाँ नहीं मिलीं। मैंने तुरंत स्थानीय फ़ोटोग्राफ़र को बुलाया और यह सुनिश्चित किया कि उन्हें तस्वीरें मिल जाएँ। अगले दिन मैंने उनके गाँव जाने का निश्चय किया, और सुबह-सुबह हम दोनों रेणी के लिए बस में सवार हुए। जब मैंने दोनों का किराया दिया तो उन्होंने ज़िद की कि अपना किराया स्वयं देंगी। वे तभी मानीं जब मैंने मज़ाक में कहा कि यह आधिकारिक यात्रा का खर्च है।

बस की यात्रा के दौरान मैं अधिकतर सुनता रहा — उनके अनुभवों और बातों में सादगी, संवेदना और जीवन की गहराई झलकती थी। रेणी गाँव के सड़क सिर तक पहुँचने के बाद हमें पैदल ऊपर चढ़ना पड़ा। उनकी उम्र मुझसे बहुत अधिक थी, फिर भी उनकी चाल मुझसे तेज़ थी — वे बार-बार रुकतीं ताकि मैं साँस ले सकूँ।

उस दिन गाँव की महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता कुछ महिलाओं के साथ अनौपचारिक बैठक कर रही थीं। यह मेरे लिए एक अच्छा अवसर था उनसे बातचीत करने का। गौरा देवी भी उस समूह में शामिल हुईं और यह देखना अद्भुत था कि गाँव की महिलाएँ उन्हें कितना सम्मान और स्नेह देती थीं। उनकी नेतृत्व क्षमता और दृढ़ता हर क्षण झलक रही थी।

मेरे लिए गौरा देवी सामूहिकता, साहस, नेतृत्व और भारतीय नारी-शक्ति की प्रतीक थीं। वे अब हमारे बीच नहीं हैं, परंतु उनके नेतृत्व की भावना आज भी देश के पर्यावरण और मानवाधिकार आंदोलनों को प्रेरणा देती है।

उनकी जन्मशती के इस अवसर पर मैं इस महान व्यक्तित्व को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ — गौरा देवी, जिनका जीवन और संघर्ष आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा और चेतना का स्रोत बना रहेगा।

लेखक एक समाजशास्त्री हैं और चार दशकों से विकास क्षेत्र में सक्रिय हैं।