- दुकान में चल रहा स्कूल, बच्चे मजबूर, सिस्टम बेख़बर
- दो साल पहले आई आपदा में गिर गया था विद्यालय भवन
देहरादून। प्रदेश में शिक्षा सुधारों के बड़े-बड़े दावे सरकार और शिक्षा विभाग की ज़ुबान पर अक्सर गूंजते हैं, “हर बच्चे तक शिक्षा, हर स्कूल में सुविधा”। लेकिन जमीनी सच्चाई कहीं जयादा दर्दनाक और शर्मसार करने वाली है। सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट तहसील के प्राथमिक विद्यालय अनरगांव की तस्वीर इन दावों की असलियत उजागर करती है।
ईटीवी उत्तराखण्ड में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक यहां बच्चे आज भी स्कूल की चारदीवारी में नहीं, बल्कि एक किराए की दुकान के तंग कमरे में बैठकर पढ़ने को मजबूर हैं। दो साल पहले आई आपदा में विद्यालय का भवन रातों-रात भरभराकर गिर पड़ा था। शुक्र रहा कि हादसा रात में हुआ, वरना मासूमों की ज़िंदगियाँ मलबे में दब जातीं। लेकिन इस हादसे के बाद भी सरकारी सिस्टम की नींद नहीं टूटी। दो साल बीत गए, पर नया भवन अब तक नहीं बना। हफ्तों तक बच्चे घरों में बैठे रहे, फिर जब सरकार ने कोई पहल नहीं की, तो गांव के लोग खुद आगे आए।
दुकान बनी बच्चों का स्कूल
गांव के ही एक सजग नागरिक श्याम सिंह ने अपनी दुकान को निःशुल्क विद्यालय संचालन के लिए दे दिया। तब से यही दुकान “स्कूल” बन चुकी है, एक छोटा कमरा, एक ब्लैकबोर्ड, सात मासूम और पांच कक्षाओं का बोझ। कमरे के एक कोने में शिक्षक बच्चों को पढ़ाते हैं, दूसरे कोने में भोजन माता मिड-डे मील बनाती हैं। न किताबों को रखने की जगह है, न बच्चों के खेलने की कोई खुली ज़मीन। यह नज़ारा सिर्फ गरीबी नहीं, बल्कि शिक्षा व्यवस्था की संवेदनहीनता का सबूत है।
अनरगांव की बीडीसी सदस्य प्रियंका देवी ने दर्दभरे लहज़े में कहा कि “दुकान के एक कमरे में विद्यार्थी कैसे पढ़ सकते हैं? शिक्षा विभाग के सारे वादे सिर्फ कागज़ों पर हैं। यह बहुत चिंता का विषय है कि बच्चों को इस हाल में पढ़ना पड़ रहा है।”
बच्चों के अभिभावक भी बेहद परेशान हैं। भागीरथी देवी कहती हैं, “बच्चे मजबूरी में दुकान के कमरे में पढ़ते हैं। अगर यह भी बंद हो गया तो बच्चों को चार किलोमीटर दूर दूसरे स्कूल में जाना पड़ेगा, जो छोटे बच्चों के लिए नामुमकिन है। सरकार को तुरंत ध्यान देना चाहिए।”
वहीं मंजू देवी ने भारी नाराज़गी जताते हुए कहा, “हमने कई बार सरकार और शिक्षा विभाग को पत्र लिखे, पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर जल्दी समाधान नहीं हुआ तो गांव के लोग आंदोलन के लिए मजबूर होंगे।”
एक कमरा, पांच कक्षाएं, सात विद्यार्थी
गांव का यह “स्कूल” शिक्षा विभाग की सुस्ती का सबसे ज़िंदा उदाहरण है, एक कमरा, पांच कक्षाएं, सात विद्यार्थी और एक शिक्षक। यह हाल उस प्रदेश का है जो “हर बच्चे तक शिक्षा” के दावे करता है। जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी तरुण पंत आशवासन के अलावा कुछ देने की स्थिति में नही है, वह कह रहे हैं कि “प्राथमिक विद्यालय अनरगांव के नए भवन के लिए बजट प्रस्ताव शासन को भेजा गया है। स्वीकृति मिलते ही निर्माण कार्य शुरू कराया जाएगा।” सवाल है कि आखिर कब तक यह नौनीहाल दुकान में पढ़ने को मजबूर रहेंगे।
लेकिन सवाल बाकी हैं…
- कब तक मासूम बच्चे दुकानों में बैठकर अपने भविष्य का सपना देखेंगे?
- कब तक कागज़ों की योजनाएँ धरातल पर आने से पहले धूल खाती रहेंगी?
- और कब तक सरकारें “शिक्षा सुधार” के नाम पर केवल भाषणों से ताली बजवाती रहेंगी?
- अनरगांव का यह स्कूल सिर्फ एक इमारत का मामला नहीं, यह सरकारी दावों और ज़मीनी सच्चाई के बीच की खाई का आईना है। यह कहानी बताती है कि पहाड़ों में बच्चे आज भी अपनी तकदीर को सरकारी वादों की दीवारों के बीच तलाश रहे हैं।
