समान आचार संहिता में संवैधानिक अड़चनें ?

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समान आचार संहिता में संवैधानिक अड़चनें ?
-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड में पुष्कर सिंह धामी की कैबिनेट ने अपनी पहली ही बैठक में पहला प्रस्ताव पारित कर राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने का ऐलान कर दिया। यह वायदा मुख्यमंत्री ने विधानसभा चुनाव के दौरान प्रदेश की जनता से किया था। इसके पीछे तर्क यह है कि गोवा राज्य में पहले से ही समान नागरिक संहिता लागू है और संविधान को अनुच्छेद 44 भी सरकार को निर्देश देता है। नये कानून का मजमून तैयार करने के लिये सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश की अध्यक्षता में कमेटी गठित करने का निर्णय भी लिया गया है। लेकिन यह विषय राज्य सरकार का न होने के कारण इसे महज खयाली पुलाव ही कहा जा सकता है। लेकिन इससे केन्द्र की मोदी सरकार पर दबाव अवश्य पड़ेगा, क्योंकि यह जनसंघ के जमाने से ही भाजपा का मूल विषय रहा है और सुप्रीम कोर्ट भी अनेकों बार भारत सरकार से इसकी अपेक्षा कर चुका है। इसलिये उन कारणों को जानना भी जरूरी है कि जो मोदी-शाह की जोड़ी धारा 370 को हटाने जैसा असंभव से लगने वाला कदम उठा सकती है, वह इतनी चाहतों के बाद भी क्यों नहीं समान नागरिक संहिता लागू करा सकी!
अगर सचमुच समान नागरिक संहिता लागू करना इतना आसान होता तो वर्ष 2014 से केन्द्र में सत्ताधारी मोदी सरकार कभी के यह व्यवस्था लागू कर देती। धारा 370 को हटाने और सीएए जैसे कानूनों पर तो भारी विवाद रहा है। जबकि इस मामले में तो सुप्रीम कोर्ट भी कम से कम चार बार सरकार का ध्यान अनुच्छेद 44 की ओर आकर्षित कर संविधान निर्माताओं की भावनाओं के अनुरूप आदर्श राज्य की अवधारणा की ओर बढ़ने की अपेक्षा कर चुका है। इस अनुच्छेद में प्रयुक्त अंग्रेजी के ‘‘स्टेट’’ शब्द की भी गलत व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 12 में स्टेट शब्द की व्याख्या की गयी है कि जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, “राज्य” के अंतर्गत भारत की सरकार और संसद तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधान- मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी हैं। जाहिर है अनुच्छेद 44 में यह अपेक्षा भारत सरकार से की गयी है न कि राज्य सरकार से।
समान नागरिक संहिता के लिये अक्सर गोवा राज्य का उदाहरण दिया जाता रहा है जहां यह व्यवस्था पिछले 155 सालों से लागू है। यह कानून दमन और दियू द्वीप समूहों में भी लागू है। विदित ही है कि गोवा पुर्तगाल का उपनिवेश रहा है और वहां लागू समान नागरिक संहिता वाला पुर्तगाली कानून सन् 1867 से ही ‘‘ द पोर्टगीज सिविल कोड 1867’’ के नाम से लागू था। भारत की आजादी के काफी समय तक जब पूर्तगाल ने गोवा को नहीं सौंपा तो एक सैन्य अभियान के तहत 19 दिसम्बर 1961 को भारत ने गोवा, दमन एवं दियू द्वीपों को अपने में विलय कर इन्हें सीधे केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया और इनके प्रशासन के लिये संसद से ‘‘द गोवा दमन एण्ड दियू (प्रशासन) अधिनियम 1962 बना दिया, जिसकी धारा 5 में व्यवस्था दी गयी कि वहां विलय की तिथि से पूर्व के वे सभी कानून तब तक जारी रहेंगे जब तक उन्हें सक्षम विधायिका द्वारा निरस्त या संशोधित नहीं किया जाता। बाद में 30 मई 1987 को इस केंद्र शासित प्रदेश को विभाजित कर गोवा भारत का पच्चीसवां राज्य बना जबकि दमन और दीव केंद्र शासित प्रदेश बने रहे। इस प्रकार समान नागरिक संहिता बनाने में गोवा विधानसभा की कोई भूमिका नहीं रही।
समान नागरिक संहिताओं में मुस्लिम पर्सनल लॉ 1937, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956,पारसी विवाह एवं तलाक अधिनियम 1936 आदि है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम जैन और बौद्धों पर भी लागू होता है। ये सारे अधिनियम केन्द्रीय कानून हैं जिन्हें संसद ही बदल या समाप्त कर सकती है।
वास्तव में नीति निर्देशक तत्वों के तहत एक देश एक कानून, केवल आदर्श राज्य (देश) की अवधारणा मात्र नहीं बल्कि यह समानता के मौलिक अधिकार का मामला भी है। लेकिन न तो अदालत नीति निर्देशक तत्वों का पालन करने के लिये आदेश दे सकती है और ना ही कोई नागरिक इनको लागू कराने के लिये अदालत जा सकता है। देखा जाय तो नागरिक संहिता के मार्ग में धर्म की स्वतंत्रता और समानता के मौलिक अधिकारों में टकराव ही असली बाधा है। संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन की व्यवस्था तो है मगर मौलिक अधिकारों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत से ही किया जा सकता है। बशर्ते वे परिवर्तन संविधान की मूल अवधारणा के विरूद्ध न हों।
संविधान में अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक में समानता के मौलिक अधिकार में कहा गया है कि भारत ‘राज्य’ क्षेत्र में राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। इन प्रावधानों में कानूनी, सामाजिक और अवसरों की समानता की गारंटी भी है। लेकिन इन्हीं मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक में धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी भी दी गयी है। अनुच्छेद 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान अधिकार होगा। यह अधिकार नागरिकों एवं गैर-नागरिकों के लिये भी उपलब्ध है।
अगस्त 2018 में, भारत के विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि देश में एक समान नागरिक संहिता आज की स्थिति में न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। यह भी कहा था कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता बहुलता के विपरीत नहीं हो सकती।’’ डा0 भीमराव अम्बेडकर ने भी संविधान निर्माण के समय कहा था कि समान नागरिक संहिता अपेक्षित है, लेकिन फिलहाल इसे विभिन्न धर्मावलंबियों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा। इसलिये इस मुद्दे को नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 में रख दिया गया।
भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के अंतर्गत आते हैं, जबकि मुस्लिम और ईसाइयों के अपने कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है। जहाँ तक विवाह का सवाल है तो यह नागरिक कानून पारसियों, हिन्दुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों के लिए कोडिफाई कर दिया गया है। डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में दिए गए एक भाषण में कहा था, किसी को यह नहीं मानना चाहिए कि अगर राज्य के पास शक्ति है तो वह इसे तुरंत ही लागू कर देगा…संभव है कि मुसलमान या इसाई या कोई अन्य समुदाय राज्य को इस संदर्भ में दी गई शक्ति को आपत्तिजनक मान सकता है। मुझे लगता है कि ऐसा करने वाली कोई पागल सरकार ही होगी।

जयसिंह रावत
पत्रकार-लेखक

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