शहीद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ : एक अमर क्रांतिकारी की अमर गाथा

शहीद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ : एक अमर क्रांतिकारी की अमर गाथा

सन् 1900 का दशक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे उथल-पुथल भरा समय था। अंग्रेज़ी साम्राज्य की जकड़ में दबी हुई यह धरती स्वतंत्रता के लिए तड़प रही थी। इन्हीं परिस्थितियों में 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में एक ऐसे बालक का जन्म हुआ, जिसने अपने प्राणों की आहुति देकर आज़ादी के इतिहास में अमर नाम दर्ज किया — शहीद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ।

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ के पिता का नाम शफ़ीक़ उल्ला ख़ाँ और माता का नाम मज़हरुन्निसा बेग़म था। परिवार धार्मिक, शिक्षित और सुसंस्कृत था। अशफ़ाक़ बचपन से ही तेज़ बुद्धि, आत्मसम्मानी और अत्यंत भावुक स्वभाव के थे। शाहजहाँपुर के स्थानीय विद्यालय से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे उच्च शिक्षा के लिए आगे बढ़े। बचपन से ही उनमें अन्याय के प्रति गहरा विरोध और देशभक्ति की अग्नि जलती रहती थी। वे कवि भी थे और “हसरत” तख़ल्लुस (उपनाम) से शायरी किया करते थे। उनकी कविताओं में दर्द, जोश और देशप्रेम का संगम झलकता था।

सन् 1919 में जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने उनके मन को झकझोर दिया। हजारों निर्दोष भारतीयों को अंग्रेज़ों ने गोलियों से भून दिया था। यही घटना उनके जीवन का निर्णायक मोड़ बनी। अशफ़ाक़ ने निश्चय कर लिया कि अब वे केवल भाषणों और प्रार्थनाओं से नहीं, बल्कि क्रांति के रास्ते से अंग्रेज़ी शासन को चुनौती देंगे।

शाहजहाँपुर में ही उनकी मुलाक़ात एक और महान क्रांतिकारी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल से हुई। बिस्मिल जी ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन’ (HRA) के संस्थापक सदस्य थे। दोनों के विचार मिलते थे — एक हिन्दू, दूसरा मुसलमान, पर दोनों का लक्ष्य एक था: भारत की पूर्ण स्वतंत्रता। उनकी मित्रता इतनी गहरी हो गई कि लोग उन्हें “राम-अशफ़ाक़” की जोड़ी कहने लगे। यह जोड़ी आज़ादी की राह में हिंदू-मुस्लिम एकता की सबसे शानदार मिसाल बन गई।

सन् 1925 में क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ी सरकार की आर्थिक रीढ़ तोड़ने का निर्णय लिया। उद्देश्य था – अंग्रेज़ों के ख़ज़ाने से धन लाकर हथियार खरीदना और संगठन को सशक्त बनाना। 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन लूटी गई, जिसमें सरकारी ख़ज़ाना था। इस योजना का नेतृत्व रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह और अन्य साथियों ने किया।
काकोरी कांड सफल रहा, पर कुछ दिनों बाद ही पुलिस ने क्रांतिकारियों को पकड़ लिया। अशफ़ाक़ गिरफ्तारी से बच निकले और दिल्ली, बनारस, बिहार होते हुए नेपाल भागने की कोशिश की। लेकिन जब वे किसी ‘दोस्त’ के पास शरण लेने पहुँचे, उसी ने उन्हें अंग्रेज़ों के हवाले कर दिया। देशद्रोही की गद्दारी ने एक देशभक्त को जेल पहुँचा दिया।

काकोरी कांड का मुकदमा ब्रिटिश अदालत में चला। अंग्रेज़ सरकार ने इसे “राजद्रोह” का मामला घोषित किया। मुकदमे में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अदालत में कहा था — “मैंने कोई अपराध नहीं किया। मेरा एक ही अपराध है — मैंने अपने वतन से मुहब्बत की है, और उसकी आज़ादी के लिए लड़ना चाहा है।” उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई गई। जेल में उन्होंने दिन-रात कुरआन का पाठ किया, नमाज़ें अदा कीं और अपने साथियों के लिए दुआएँ कीं। वे कहते थे — “मौत से डरना कायरों का काम है, जो अपने वतन के लिए जीते और मरते हैं, उन्हें मौत भी सलाम करती है।”

19 दिसंबर 1927 की सुबह फ़ैज़ाबाद जेल में माहौल ग़मगीन था। वही दिन था जब भारत माँ का एक और सपूत हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूमने जा रहा था। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने फाँसी से पहले नारा लगाया —“मेरे खुदा! तेरे दीवाने हँसते हुए जा रहे हैं…” और कुछ ही पलों में वे अमर हो गए। उसी दिन अलग-अलग जेलों में उनके साथी रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को भी फाँसी दे दी गई।

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और रामप्रसाद बिस्मिल की मित्रता भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सांप्रदायिक सौहार्द की सबसे महान मिसाल बनी। दोनों ने यह साबित कर दिया कि भारत की आज़ादी की लड़ाई न हिन्दू की थी, न मुसलमान की — वह भारतीयता की लड़ाई थी। बिस्मिल जी ने कहा था — “अगर अशफ़ाक़ जैसा साथी हर भारतीय को मिल जाए, तो यह देश जल्द ही आज़ाद हो जाएगा।”

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जीवन आज भी नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत है। उनकी कविता की कुछ पंक्तियाँ उनके जज़्बे को बयाँ करती हैं —
“क़त्ल-ए-अशफ़ाक़ से मिट जाएगी यह आरज़ू कहाँ,
हर एक कण में बसता है, मेरा हिंदुस्तान।”

उनके नाम पर आज कई विद्यालय, सड़कें और संस्थान हैं। शाहजहाँपुर में उनका स्मारक आज भी इस बात का प्रतीक है कि एक मुस्कुराता नौजवान फाँसी के तख़्ते पर भी सिर्फ़ एक ही शब्द कहता था — “भारत माता की जय!”

शहीद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की कहानी केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि एक विचार की कहानी है — आज़ादी, समानता और एकता के विचार की। उन्होंने अपने लहू से इस मिट्टी को सींचकर हमें यह सिखाया कि “धर्म, जाति या भाषा से ऊपर उठकर जो अपने वतन से मुहब्बत करता है, वही सच्चा देशभक्त है।”