- आसान नही होगा यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना
- उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू करने की पहल
- मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक में धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी भी दी गयी है
- अनुच्छेद 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान अधिकार होगा
मौहम्मद शाहनजर
देहरादून। उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार राज्य में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने के लिए सरकार बनने के पहले दिन से ही गंभीर नजर आ रही है। भाजपा देश भर में अपने इस मुद्दे को देवभूमि उत्तराखण्ड से साकार करने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहती है। यूनिफॉर्म सिविल कोड भाजपा के गठन से ही पार्टी के मूल एजेंडे में रहा है। समान नागरिक संहिता एक ऐसा मुद्दा है, जो हमेशा से भाजपा के एजेंडे में रहा है। 1989 के आम चुनाव में पहली बार भाजपा ने अपने घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता का मुद्दा शामिल किया था। इसके बाद 2014 के आम चुनाव और फिर 2019 के चुनाव में भी भाजपा ने इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में जगह दी।
भाजपा का मानना है कि जब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड को अपनाया नहीं जाता, तब तक लैंगिक समानता नहीं आ सकती। पार्टी के इस अहम मुद्दे को सार्थक करने के लिये मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राज्य में हुए विधानसभा के चुनाव मतदान के बाद ऐलान किया था, कि अगर प्रदेश में भाजपा की सरकार वापसी करती है, तो पहली कैबिनेट बैठक में ही समान नागरिक संहिता का खाका तैयार करने को प्रस्ताव पास किया जाएगा। पुष्कर सिंह धामी ने अपने वादे के मुताबिक कैबिनेट की पहली ही बैठक में पहला प्रस्ताव पारित कर राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने का ऐलान कर दिया था, यह वायदा मुख्यमंत्री ने विधानसभा चुनाव के दौरान प्रदेश की जनता से किया था। इसके पीछे तर्क यह है कि गोवा राज्य में पहले से ही समान नागरिक संहिता लागू है और संविधान को अनुच्छेद 44 भी सरकार को निर्देश देता है। अब सरकार ने इस दिशा में एक और कदम बढ़ाया है, उत्तराखंड सरकार ने राज्य में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने के लिए एक ड्राफ्टिंग कमेटी का का गठन भी कर दिया है, अब यह कमेटी ड्राफ्ट तैयार करेगी। इस कमेटी की चेयरपर्सन सुप्रीम कोर्ट की रिटायर जस्टिस रंजना देसाई को बनाया गया है। कमेटी का गठन करते हुए मुख्यमंत्री धामी का कहना था कि देवभूमि की संस्कृति को संरक्षित करते हुए सभी धार्मिक समुदायों को एकरूपता प्रदान करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की रिटायर जस्टिस रंजना देसाई की अध्यक्षता में यूनिफॉर्म सिविल कोड के क्रियान्वयन को विशेषज्ञ समिति का गठन किया जा रहा है, अब कमेटी जल्द ही ड्राफ्ट तैयार करेगी और ड्राफ्ट तैयार होने के बाद हम उसे लागू करेंगे।
यूनिफॉर्म सिविल कोड की ड्राफ्टिंग कमेटी में सुप्रीम कोर्ट की रिटायर जस्टिस रंजना देसाई के अलावा दिल्ली हाईकोर्ट के रिटायर जस्टिस प्रमोद कोहली को भी शामिल किया गया है। इसके अलावा राज्य के पूर्व मुख्य सचिव शत्रुघ्न सिंह, मनु गौड़ और सुरेखा डंगवाल इस कमेटी के सदस्य बनाए गए हैं। बता दें कि मनु गौड़ सामाजिक कार्यकर्ता हैं, तो सुरेखा डंगवाल दून यूनिवर्सिटी की कुलपति हैं। भारतीय जनता पार्टी देश में समान नागरिक संहिता की जो कवायद लंबे समय से चला रही है, उसे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी पूरा करने चले हैं। हालांकि राह आसान नहीं है क्योंकि गोवा को छोड़कर देश के किसी भी राज्य या केंद्र के स्तर से समान नागरिक संहिता अभी तक लागू नहीं हो पाई है।
गोवा का भी भारत में विलय होने से पहले से ही वहां पुर्तगाल सिविल कोड 1867 लागू है। राज्य की धामी सरकार जिस यूनिफॉर्म सिविल कोड या समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात कर रही है, वह है क्या। क्या राज्य सरकार के लिये यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करना आसान होगा ? केंद्र में बैठी दुनिया की सबसे शक्तिशाली पार्टी की सरकार के मुखिया जिस बिल को पिछले 8 साल के कार्यकाल में लागू करने या ड्राफ्ट बनाने की दिशा में कोई कदम नही उठा सके तो उत्तराखण्ड की राज्य सरकार देश भर के इस संवेदनशील मुद्दे पर मुखरता से आगे बढ़ती हुई दिखाई दे रही है।
पहले बात करते है, यूनिफॉर्म सिविल कोड की। यूनिफॉर्म सिविल कोड पूरे देश के लिये एक समान कानून के साथ ही सभी धार्मिक समुदायों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि कानूनों में भी एक जैसी स्थिति प्रदान करता है। इसका पालन धर्म से परे सभी के लिए जरूरी होता है। दरअसल देश में ये कानून कुछ मामलों में लागू है, लेकिन कुछ में नहीं। भारतीय अनुबंध अधिनियम, नागरिक प्रक्रिया संहिता, माल बिक्री अधिनियम, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, भागीदारी अधिनियम, साक्ष्य अधिनियम आदि में यूनिफॉर्म सिविल कोड है, लेकिन विवाह, तलाक और विरासत जैसी बातों में इसका निर्धारण पर्सनल लॉ या धार्मिक संहिता के आधार पर करने का प्रावधान है। हिंदू धर्म के लिए अलग, मुस्लिमों का अलग और ईसाई समुदाय का अलग कानून है। समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद सभी नागरिकों के लिए एक ही कानून होगा।
समान नागरिक संहिता एक ऐसा मुद्दा है, जो हमेशा से भाजपा के एजेंडे में रहा है। 1989 के आम चुनाव में पहली बार भाजपा ने अपने घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता का मुद्दा शामिल किया था। इसके बाद 2014 के आम चुनाव और फिर 2019 के चुनाव में भी भाजपा ने इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में जगह दी। भाजपा का मानना है कि जब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड को अपनाया नहीं जाता, तब तक लैंगिक समानता नहीं आ सकती। समान नागरिक संहिता पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर दिल्ली हाईकोर्ट तक सरकार से सवाल कर चुकी है। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा था कि समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए कोई कोशिश नहीं की गई। वहीं, पिछले साल जुलाई में दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र से कहा था कि समान नागरिक संहिता जरूरी है। वर्तमान समय में हर धर्म के लोगों से जुड़े मामलों को पर्सनल लॉ के माध्यम से सुलझाया जाता है। हालांकि पर्सनल लॉ मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का है जबकि जैन, बौद्ध, सिख और हिंदू, हिंदू सिविल लॉ के तहत आते हैं।
दुनिया के इन देशों में लागू है समान नागरिक संहिता
तुर्की, सूडान, इंडोनेशिया, मलेशिया, बांग्लादेश, इजिप्ट और पाकिस्तान।
क्या कहते हैं कानूनविद
संविधान के जानकार व प्रयाग आईएएस अकादमी के निदेशक आर ए खान का कहना है कि निश्चित तौर पर अनुच्छेद-44 के तहत राज्य सरकार अपने राज्य के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बना सकती है लेकिन इसे लागू कराने के लिए केंद्र को भेजना होगा। इसके बाद राष्ट्रपति से मुहर लगने पर ही यह लागू हो सकती है। कहने ओर बोलने में यह बिल जितना आसान नजर आता है, वास्तव में उतना आसान है नही। अधिवक्ता मुकेश कुमार का कहना है कि संविधान की संयुक्त सूची में अनुच्छेद-44 के तहत राज्य को समान नागरिक संहिता बनाने का पूर्ण अधिकार है। इसके बाद अगर केंद्र सरकार कोई यूनिफॉर्म सिविल कोड लेकर आती है तो राज्य की संहिता उसमें समाहित हो जाएगी। वहीं, वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत का मानना है कि यह विषय राज्य सरकार का न होने के कारण इसे महज खयाली पुलाव ही कहा जा सकता है। लेकिन इससे केन्द्र की मोदी सरकार पर दबाव अवश्य पड़ेगा, क्योंकि यह जनसंघ के जमाने से ही भाजपा का मूल विषय रहा है और सुप्रीम कोर्ट भी अनेकों बार भारत सरकार से इसकी अपेक्षा कर चुका है। इसलिये उन कारणों को जानना भी जरूरी है कि जो मोदी-शाह की जोड़ी धारा 370 को हटाने जैसा असंभव से लगने वाला कदम उठा सकती है, वह इतनी चाहतों के बाद भी क्यों नहीं समान नागरिक संहिता लागू करा सकी!
अगर सचमुच समान नागरिक संहिता लागू करना इतना आसान होता तो वर्ष 2014 से केन्द्र में सत्ताधारी मोदी सरकार कभी के यह व्यवस्था लागू कर देती। धारा 370 को हटाने और सीएए जैसे कानूनों पर तो भारी विवाद रहा है। जबकि इस मामले में तो सुप्रीम कोर्ट भी कम से कम चार बार सरकार का ध्यान अनुच्छेद 44 की ओर आकर्षित कर संविधान निर्माताओं की भावनाओं के अनुरूप आदर्श राज्य की अवधारणा की ओर बढ़ने की अपेक्षा कर चुका है। इस अनुच्छेद में प्रयुक्त अंग्रेजी के ‘‘स्टेट’’ शब्द की भी गलत व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 12 में स्टेट शब्द की व्याख्या की गयी है कि जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, “राज्य” के अंतर्गत भारत की सरकार और संसद तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधान-मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी हैं। जाहिर है अनुच्छेद 44 में यह अपेक्षा भारत सरकार से की गयी है न कि राज्य सरकार से।
भारत की आजादी के काफी समय तक जब पूर्तगाल ने गोवा को नहीं सौंपा तो एक सैन्य अभियान के तहत 19 दिसम्बर 1961 को भारत ने गोवा, दमन एवं दियू द्वीपों को अपने में विलय कर इन्हें सीधे केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया और इनके प्रशासन के लिये संसद से ‘‘द गोवा दमन एण्ड दियू (प्रशासन) अधिनियम 1962 बना दिया, जिसकी धारा 5 में व्यवस्था दी गयी कि वहां विलय की तिथि से पूर्व के वे सभी कानून तब तक जारी रहेंगे जब तक उन्हें सक्षम विधायिका द्वारा निरस्त या संशोधित नहीं किया जाता। बाद में 30 मई 1987 को इस केंद्र शासित प्रदेश को विभाजित कर गोवा भारत का पच्चीसवां राज्य बना जबकि दमन और दीव केंद्र शासित प्रदेश बने रहे। इस प्रकार समान नागरिक संहिता बनाने में गोवा विधानसभा की कोई भूमिका नहीं रही। समान नागरिक संहिताओं में मुस्लिम पर्सनल लॉ 1937, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956,पारसी विवाह एवं तलाक अधिनियम 1936 आदि है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम जैन और बौद्धों पर भी लागू होता है। ये सारे अधिनियम केन्द्रीय कानून हैं जिन्हें संसद ही बदल या समाप्त कर सकती है।
वास्तव में नीति निर्देशक तत्वों के तहत एक देश एक कानून, केवल आदर्श राज्य (देश) की अवधारणा मात्र नहीं बल्कि यह समानता के मौलिक अधिकार का मामला भी है। लेकिन न तो अदालत नीति निर्देशक तत्वों का पालन करने के लिये आदेश दे सकती है और ना ही कोई नागरिक इनको लागू कराने के लिये अदालत जा सकता है। देखा जाय तो नागरिक संहिता के मार्ग में धर्म की स्वतंत्रता और समानता के मौलिक अधिकारों में टकराव ही असली बाधा है।
संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन की व्यवस्था तो है मगर मौलिक अधिकारों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत से ही किया जा सकता है। बशर्ते वे परिवर्तन संविधान की मूल अवधारणा के विरूद्ध न हों। संविधान में अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक में समानता के मौलिक अधिकार में कहा गया है कि भारत ‘राज्य’ क्षेत्र में राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। इन प्रावधानों में कानूनी, सामाजिक और अवसरों की समानता की गारंटी भी है। लेकिन इन्हीं मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक में धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी भी दी गयी है। अनुच्छेद 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान अधिकार होगा। यह अधिकार नागरिकों एवं गैर-नागरिकों के लिये भी उपलब्ध है। अगस्त 2018 में, भारत के विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि देश में एक समान नागरिक संहिता आज की स्थिति में न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। यह भी कहा था कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता बहुलता के विपरीत नहीं हो सकती।’’ डा0 भीमराव अम्बेडकर ने भी संविधान निर्माण के समय कहा था कि समान नागरिक संहिता अपेक्षित है, लेकिन फिलहाल इसे विभिन्न धर्मावलंबियों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा। इसलिये इस मुद्दे को नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 में रख दिया गया।
21वें विधि आयोग को सौंपा था मसला
समान नागरिक संहिता का मसला विधि आयोग के पास है। कानून मंत्री किरन रिजिजू ने इसी साल 31 जनवरी को भाजपा सांसद निशिकांत दुबे को एक पत्र लिखकर बताया था कि समान नागरिक संहिता का मामला 21वें विधि आयोग को सौंपा गया था, लेकिन इसका कार्यकाल 31 अगस्त 2018 को खत्म हो गया था। अब इस मामले को 22वें विधि आयोग के पास भेजा जा सकता है।
भारत का वो राज्य, जहां हिंदुओं को है कई शादियों की इजाजत
गोवा का सिविल कोड कुछ स्थितियों में हिंदू पुरुषों को बहुविवाह की इजाजत देता है। भारत में एक ऐसा भी राज्य है, जहां यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू है, लेकिन वहां के कानून में केवल हिंदुओं के लिए कई शादियों की इजाजत भी है, हालांकि ये कई शर्तों से बंधी हुई है। इसी तरह भारत में मिजोरम में एक कबीला ऐसा भी है, जिसमें बहुविवाह सामान्य है और इसमें कानून भी दखल नहीं देता। वैसे देश में ये कानून अब तक केवल एक राज्य में लागू है, इसके अलावा ना तो कभी केंद्र और ना अन्य राज्य सरकारों ने इस ओर कभी पहल की है, वैसे बेशक आप हैरान हो सकते हैं लेकिन जिस एक राज्य में समान नागरिक संहिता लागू है, वहां बाकी धर्मों को तो नहीं लेकिन वहां के हिंदुओं को शर्तों के साथ कई शादियों की आजादी है। ये राज्य गोवा है, गोवा में जब पुर्तगाली शासन था, तब वहां पुर्तगाली सिविल कोड लागू किया गया। ये 1867 की बात है, तब तक भारत में ब्रिटिश राज में भी सिविल कोड नहीं बनाया गया था, लेकिन पुर्तगाल सरकार ने ऐसा कर दिया। जब पुर्तगाल सरकार ने गोवा उपनिवेश के लिए ये कानून बनाया तब गोवा में दो धर्म के लोग ही बहुलता में थे- ईसाई और हिंदू। तब वहां के हिंदुओं में कई शादियों का रिवाज था और भारत में हिंदू और मुसलमान कई शादी कर सकते थे, लेकिन गोवा में जब समान नागरिक संहिता कानून बना तो इसने हर किसी के लिए एक ही शादी का प्रावधान किया। प्रावधान ये था कि पहली पत्नी के रहते कोई भी व्यक्ति दूसरा विवाह नहीं कर सकता लेकिन ये कानून कुछ शर्तों के साथ केवल वहां पैदा हुए हिंदुओं को एक पत्नी के रहते दूसरे विवाह की इजाजत देता था। ये कानून अब भी उसी तरह लागू है।
प्राचीन भारत में बहुविवाह बहुत सामान्य बात थी। राजा, शासक, बड़े व्यापारी और अफसर कई शादियां करते थे। वही उत्तराखण्ड में भी कई स्थानों पर बहुविवाह की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है, उत्तराखण्ड के चकराता के जौनसार में खस जनजाति में तो बहुपति प्रथा आजादी के समय तक देखने को मिल जाती थी, अब वहां यह प्रथा समाप्त हो चुकी है, मगर कई भाईयों की एक पत्नी से उत्पन संतान आज भी मौजूद है, और जमीन बटवारे के कई विविाद आज भी विचाराधीन है। वहीं, जब गोवा आजाद हुआ तो नए राज्य में उसी सिविल कोड को अपना लिया गया तो पुर्तगालियों के शासन के तहत 93 सालों से वहां चल रहा था। ये हिंदुओं को कुछ स्थितियों में बहुविवाह की अनुमति देता है, इसके अनुसारः-25 साल की उम्र तक अगर पत्नी से कोई संतान नहीं हो तो पति दूसरी शादी कर सकता है। 30 साल की उम्र तक अगर पत्नी पुत्र को जन्म नहीं दे पाती तो भी पति दूसरी शादी कर सकता है। इन हालातों में समान नागरिकता संहिता कानून की राह आसान नही होगी।
क्या स्थिति थी प्राचीन भारत में
वैसे अगर बहुविवाह की बात करें तो ब्रितानी राज में ही नहीं बल्कि प्राचीन भारत में एक पुरुष की कई शादियां बहुत सामान्य बात थी। राजा और बडे़ अफसर ऐसा खूब करते थे। इसे लेकर कोई प्रतिबंध नहीं था, कई राजाओं के यहां रानियों की फौज होती थी, जिस समय अंग्रेज भारत में शासन कर रहे थे, तब पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह के बारे में कहा जाता था कि उनके रनिवास में 80 से ज्यादा रानियां थीं, जिसमें कुछ को मुख्य रानियों का दर्जा हासिल था। दुनिया की सुंदर स्त्रियों में गिनी जाने वाली महारानी गायत्री देवी जयपुर के महाराजा सवाई मान सिंह की तीसरी पत्नी थीं, भारत के कई बड़े व्यापारी भी कई पत्नियां रखते थे, आजादी से पहले प्रसिद्ध उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया ने 6 शादियां कीं। बाद में 1935 में जब ब्रिटिश राज में नागरिक सिविल कोड कानून लाया गया तब हिंदुओं और मुसलमानों को उनके व्यक्तिगत कानूनों के चलते एक शादी के दायरे से अलग रखा गया।
मिजोरम में एक जनजाति अब भी करती है बहुविवाह
वैसे मिजोरम में जरूर एक ऐसी जनजाति है, जिसे लांपा कोहरान थार या चाना कहा जाता है, जिसमें एक पुरुष कई बीवियां रख सकता है, ये जनजाति ईसाई धर्म मानती है। मिजोरम में एक खास चाना जनजाति के पुरुषों को कई शादियों की इजाजत है। ये जियोना चाना हैं, जिनकी पिछले साल मृत्यु हो गई, आधिकारिक तौर पर उनका परिवार 38 बीवियों और 89 बच्चों का था। इसके अलावा 30 से ज्यादा नाती-पोते थे। वहां ये रिवाज अब भी चल रहा है, इसी समुदाय से ताल्लुक रखने जिओना चाना के 38 बीवियां और 89 बच्चे थे। जियोना का 2021 में निधन हो गया लेकिन उनके नाम दुनिया के सबसे बड़े परिवार का रिकॉर्ड दर्ज था। कानून इस जनजाति की बहुविवाह परंपरा में दखल नहीं देता।
बांग्लादेश में भी हिंदुओं को बहुविवाह की इजाजत
बांग्लादेश 1971 में आजाद हुआ और इसके बाद गणतांत्रिक राज्य बना, वहां के सिविल कोड में भी हिंदुओं को कई शादियों की इजाजत है।